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मन तो मन है

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#दिनांक:-29/4/2024 #शीर्षक:-मन तो मन है। मन प्रीत भी है मन मीत भी है मन गीत भी है मन रीत भी है मन राह भी है मन चाह भी है मन ना-ना भी है मन हाँ-हाँ भी है मन नवांश भी है मन अक्षांश भी है मन सिद्द भी है मन बुद्ध भी है मन मान भी है मन स्वाभिमान भी है मन राम श्याम भी है मन रहीम अकरम भी है मन जीता जग जीतता है मन हारा बिखरा संसारा है मन मन का भेदी नहीं मन तन का कैदी नहीं मन जवान, बुढ़ापा अंश नहीं मन रंग रूप कृष्ण कंश नहीं विविध का उपकरण मन है श्रृंगारित यौवन का वरण मन है क्षणभंगुरता का तारण मन है मोह माया का कारण मन है...... कुछ भी हो! मन तो मन है मन के बिना अधूरा जीवन है। (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई  

मतदान

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#शीर्षक:-चलो करो मतदान सफल। सखि चलो करो मतदान  अब सफल करो अभियान।1। महत्व वोट का जानो तुम, चलो बूथ ना बनो मेहमान।2। जो चाहे देश विकास करे, पर न अपना कोई उदास रहे।3। लोकतंत्र की शान हैं हम , राम विरोधी हमेशा बेदम रहे।4। सफल सनातन सत्ता होगी, पूरी जन-जन-इच्छा होगी।5। अटल सत्य हो जीत हमारी, झूठी शान पर सच भारी होगी।6 सनातन धर्म महान हमारा,! राम-कृष्म का नाम सहारा।7। फिर मुहर समझ कर मारो तुम, दुष्टों को तलवारो से करो किनारा।8। रखो अपनी बुद्धि विमल , चलो करो मतदान सफल।9। माँ-चाची-भाभी-दीदी चल , सही चुनेंगे लगे अकल।10। पांच साल का भविष्य हमारा  मुहर लगे तो मिले किनारा।11। सूझबूझ अधिकार तुम्हारा, मनहर नेता बने सहारा।12। रचना मौलिक,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है। प्रतिभा पाण्डेय 'प्रति; चेन्नई

कृपालु सदा पुरुषोत्तम राम

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#दिनांक:-24/4/2024 #शीर्षक:-कृपालु सदा पुरुषोत्तम राम। दुष्ट विनाशक भक्ति-बलधाम, राम भजन जिनका नित काम, अंजनी लाल रूद्र अवतारी, जय श्रीराम जय-जय हनुमान। श्रद्धापूरित विनती करती , एक अरज बस तुमसे कहती। शक्ति,भक्ति-अनुरक्ति चाहिए, विनयी,बुद्धि-विरक्ति चाहिए। कृपालु सदा पुरुषोत्तम राम, स्नेहापूरित दिव्य ललाम। आप प्रभु के हृदय बिराजे, वृत्ति आसुरी नष्ट हो, बने श्रेष्ठ मनुष्य महान । (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

हे पुरूष ! तुम्हें रोना नहीं

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#दिनांक:-24/4/2024 #शीर्षक:-हे पुरुष ! तुम्हें रोना नहीं। हाँ ,स्त्रियों जान लो, पुरुष भी रोता है। कभी किसी में, सिद्दत से जब खोता है। छाया के अभाव में, अकेलेपन में रोता है। पहला प्यार माँ से, उठ जाए माँ का साया। अकेलेपन के घुटन में रोता है, वेदना दिखाता नहीं, व्यथा बताता नहीं। आहत कभी नर से, कभी नारी से प्रताड़ित हो, कुढ़ता रोता है। कभी-कभी खुद के व्यवहार से, हानि हुए विस्तृत व्यापार से, दर्द का अथाह सागर, कभी ना दिखाता गागर। कभी शोषित तो कभी हीनभाव, शोषण से चिढ़कर रोता है। कभी फंस जाता है हम-तुम के बीच, समेटता खुद को सबके बीच। सही गलत का फैसला नहीं कर पाता, फिर उलझन में उलझकर रोता है। पुरुष का रोना बस, घर का कोना देख पाता। दिल की बात मन समझ पाता। हे पुरुष ! तुम्हें रोना नहीं, परिवार,समाज समझाता। असमंजस में पड़ा-खड़ा, ना खुलकर रो पाता है ना खुलकर हँस पाता है । (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

देखो मधुकर को

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#दिनांक:-27/4/2024 #शीर्षक:-देखो मधुकर को। तुम बंजर ना बनो, देखो प्रकृति को, देखों नियति को, देखो मधुकर को, देखो रहबर को। तुम बंजर ना बनो, तुम समझदार बन जाओ, तुम असरदार बन जाओ, तुम कोई व्यापार नहीं, बस व्यवस्थित किरदार बन जाओ। तुम बंजर ना बनो, मन की बातों को बताकर, दिल का अगाध प्रेम दिखाकर, अरमानों का विस्तार कराकर, अनगिन प्रश्नों को सुलझाकर। तुम बंजर ना बनो, किस्मत की किस्मत बन जाओ, दरिया का साहिल बन जाओ, शोख हसीन फितरत बन जाओ, प्रेम के मीठे गीत गुनगुनाओ। तुम किसी मधुकर के लिए उपजाऊ बन जाओ......। (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

पंखुरी सी बिखरे

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#दिनांक:-27/4/2024 #शीर्षक:- कलिका खिलकर पंखुरी सी बिखरे। क्षणभंगुर यह दुनिया, दिखती विशाल पर होती क्षणिक, मेघों की क्षणिकायें भटकता पथिक, जाना है किस ओर?किस ओर चल पडती जीवन के उद्देश्य में अहम कड़ी जोड़ती, गम पहाड लगता है अक्सर सबको, खुशियाँ क्षण बन लुभाती मन को। कभी अनित्यता ना गुहार करे , क्रोधित खुद पर प्रहार करे । कलिका खिलकर पंखुरी सी बिखरे , कलि काल कुठार लिए फिरे। शीतल मंद पवन सिहर-सिहर सिहराती, सुगन्धित जीवन है क्षणभंगुर बताती। नम्रता की चोट सहनशील नहीं, हरि सुमिरन आजीवन तल्लीन नहीं। मरण का साया जब सिर पर आया, भूत आकर वाचे प्रभु सुमिरन ना भाया। गुरूर मन का प्रेम को ना पढ पाया, इतनी अकड़न कि मिला प्यार भी ठुकराया। किस बात का घमंड घमासान हो रहा, क्षणभंगुरता की चोट आजीवन है खाया। पर संतोष नहीं कुछ और भी अभी समेटना है , पोते को देख लिया नातिन को भी देखना है । सर्वशक्तिमान को बरगाता निशदिन, सोचता दृष्टांत में जीवन का वृतांत लपेटना है । (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

पर्यावरण संरक्षण

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#दिनांक:-22/4/2024 #शीर्षक- पर्यावरण संरक्षण झुलसाती कड़ी थूप , पेड़ भगवान स्वरुप ! छाँव का सुकून , हवा बहती भर जुनून ! शोभा है धरित्री की , श्रृंगार प्रकृति की ! जीवन दायिनी , तुलनीय कामिनी ! नदी बहती पावन , गंगा हैं पाप धोवन ! इनसे दुनिया सारी , कटाई पड़ेगी भारी ! जीवन का आधार अगर प्रेम हैं , पेड़ जीने का आधार है ! मिलकर जन-जन पेड़ लगाओ , हरियाली से जीवन सजाओ ! भक्षिनी कोरोना को आक्सीजन से मार गिराओ !! काटकर पेड़ न छीनों धरती का गहना , जीवन का है ये अमूल्य सोना ! न काटो अपनी सॉस को , न सजाओ अपनी अर्थी को ! लकड़हारा गिरोह के विरोध में, आओ मिलकर आवाज उठाओ। पेड़ हमारी सॉसों की रक्षक है, अंदर के कर्तव्यों को झकझोर जगाओ, नित नए पेड़ लगवाओ लगाओ । (स्वरचित,मौलिक)             प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"                 चेन्नई

रोज इंतज़ार में जीता है

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#दिनांक:-21/4/2024 #शीर्षक:-रोज इन्तजार में जीता है। प्रेम प्रेम नहीं मॉगता, खुशियों का पैगाम नहीं मॉगता। ना रूलाना चाहता ना खुद रोना पसंद, बात-बात पर परखना नहीं चाहता। इंतजार करता है मौत के आखिरी दिन तक , इंतजार करता है प्रीति की हर रीति तक। इंतजार करता है भविष्य के हर गीत तक, इंतजार करता है मिलेगा जरूर मीत, मीत तक!! जुडकर एक से फिर किसी से जुड़ता नहीं, चल पडता प्रेम पथ पर कभी मुड़ता नहीं। प्रेम की उम्मीद एक के सिवा और किसी से नहीं करता, रोज इंतज़ार में जीता है तिल-तिल है रोज मरता। सारी इच्छाओं पर नाम एक का लिखकर, यादों में भी बस उसी के डूबा रहता। आगे आयेगा प्रेम या नहीं इश्क की मर्जी, पुरानी फाइल में लिख भूल गया है अर्जी। अब बस कुछ समय के सहारे जीवन जीता, सारी दुनिया का प्यार छलावा मात्र लगता फर्जी। बेचैन गोद में सुकुन  की नींद लेना चाहता, पूछते सब पर किसी से ना कहना चाहता। कोई दिकु प्रेमी.., कोई प्रेम प्रेमिका हैं बिरले, भोर की शुरुआत प्रेम से रात प्रेम साथ सो जाता। (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

ले लो निज अंक माँ

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#दिनांक:-16/4/2024 #शीर्षक;-ले लो निज अंक मॉं डूबती नैया को पार लगाओ, माँ दुर्गा हमें आशीर्वाद देने आओ । अस्त्र-शस्त्र नवरूप धारण कर, पापियों का नाश करने आओ। सुकोमल भाव समर्पित कमलासिनी, तू ही गौरी, ब्रह्माणी,रूद्राणी,पर्वतवासिनी। शिव प्रिया बामांक सुशोभिता, रक्षा करो मातु दुख निवारिणी। अलौकिक दिव्य ज्योति तुम्हारी, माँ ! तुमको पूजते सारे नर-नारी। भक्तिमय हो जाता महीना संवत्सर, दुष्ट-दानव पर सदा रहती भारी। माँ  की मूरत मोहिनी ममतामयी, कृपालु कल्याणकारी करुणामयी। मिटे जन-मन कल्मष-अंधियारा, मनोहारी माता मातंगी महिमामयी। ले लो निज अंक हूँ दीन-दुखी माँ, सुविचार-विवेक की दो भीख माँ। गलतियाँ सारी क्षमा करो माता, खुद की समझ की दो सीख माँ। (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

खो गए रिश्ते

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#दिनांक:-18/4/2024 #शीर्षक:-खो गये रिश्ते। चलो जिन्दगी में आज किरदारों का आदान-प्रदान करते हैं, कुछ तुझसे लेते हैं कुछ किसी का आत्मसात करते हैं। बेमौसम की बरसात भी, कभी-कभी बहुत खलती है। पक्ष किसी का लेकर आज, तेरे साथ पक्षपात करते हैं। कभी प्रसन्न कभी तनाव देती हो, रोने के बाद ही क्यूँ लगाव देती हो। सहनशीलता का अभाव होने पर, घाव कुरेदकर ही फिर घाव देती हो? खो रहे वो अपने हकदार जो थे, नींद गायब आँखों से जो रातों के हकदार थे । हिस्सेदारी आज नाच पार्टियों में बंट गई, खो गए रिश्ते महकदार जो थे, ऐ जिन्दगी परास्त किसको कर रही? पत्थर से सिर मार खुद ही तो रो रही। झांक अपने अंदर क्या है तेरा किरदार, तू तो अपने को ही दर्द बेहिसाब दे रही । (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

सुख तो बस हरजाई है

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#दिनांक:-18/4/2024 #विधा:- गीत शीर्षक:-सुख तो बस हरजाई है। खुद से खुद मैं लड़ती रहती, सुख तो बस हरजाई है। बात-बात पर रोती रहती, जिद ही जिद को खाई है। लौटा दो मेरा बचपन तुम, अल्हण-चंचलपन में आऊँ। नहीं सुहाती दुनिया मुझको, कैसे मैं प्रतिभा बन पाऊँ। मतभेद विचारों में भरकर, घर -घर बैठी तनहाई है। कैसे कहो, कहाँ मैं ढूंढू अलगाव वाद परछाई है। खुद से खुद मैं लडती रहती ।1। नहीं सहारा कोई होगा, बेटा- बेटी जन्मे तुम । खाली हाथ ही जाना होगा, फिर भी मोह से मोहित तुम? मोहन-मोहन करते जाओ, मोहन ही तेरा साईं है, कलयुग का जाप यही है, जग जगन्नाथ समाई है । खुद से खुद मैं लडती रहती ।2। राम अखिल ब्रह्मांड नायक, धरती पर मानुष बन जनमे। जीत लिया माया को प्रभु ने, मर्यादित बन बिचरे वन में । हनुमत जैसा सेवक बन लो, सीने में बिम्ब दिखाए हैं, राम-नाम का सुमिरन कर लो, जन-जन में राम समाए हैं। खुद से खुद मैं लडती रहती।3। (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

कौन है जिम्मेदार?

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#दिनांक:-21/4/224 #शीर्षक:-कौन है जिम्मेदार? एक नेकदिल ने दुखती रग पर हाथ रख दी, आँसुओ में डूबकर सारी बात कह दी। कैसे आसान था जीवन आज तमाम है, नादान लडकी अब वेश्यागमन कर ली। पाउडर ,बिन्दी और होंठलाली, तैयार हो अप्सरा लगी गली भी। एक टांग ऊपर एक भू पर सुसज्जित, हाथ पसारे, बेबस में भी लगती भली थी। आकर्षित करता चकाचौंध वेश्यालय, सिसकारी भरी आह और अदा पर, लट्टू पूंजी वाले। मुॅह मांगी रकम पर बेचती अपना धरम, छिप-छिपाकर रोज आते इज्ज़त वाले। मतलबी झूठा प्रेम दिखाकर बेच गया, हवसी आकर भूख मिटाकर चला गया!  रिश्ते में सन्तुष्टि मिलती कहाँ है बाबूजी? सब हैवान एकाध भला इंसान मिलता गया । नर्क में जीने से ज्यादा मरने के विचार भरने आए, हर क्षण खामोश, हिस्से हमारे पतझर ही आए  रोज मरते, फिर जिन्दा नसीब और पेट कर देती है, व्याकुल मन की व्यथा आखिर किसको सुनाए ? कैसे अपने को पाकर पुनः जिन्दा हो पाए.........। वेश्या हो या आम औरतें टुकड़े-टुकड़े में बंट गईं, तुम पतली,तुम कुरूप,तुम छोटी तुम...ऐसे छंट गईं, आँसू भरी सिसकियॉ,वेदनाओं का अथाह समन्दर बढ़ता गया, प्रेम, ...

हे पुरुष तुम्हे रोना नहीं

  #दिनांक:-14/4/2024 #शीर्षक:-हे पुरुष ! तुम्हें रोना नहीं। हाँ ,स्त्रियों जान लो, पुरुष भी रोता है। कभी किसी में, सिद्दत से जब खोता है। छाया के अभाव में, अकेलेपन में रोता है। पहला प्यार माँ से, उठ जाए माँ का साया। अकेलेपन के घुटन में रोता है, वेदना दिखाता नहीं, व्यथा बताता नहीं। आहत कभी नर से, कभी नारी से प्रताड़ित हो, कुढ़ता रोता है। दर्द का अथाह सागर, कभी ना दिखाता गागर। कभी शोषित तो कभी हीनभाव, शोषण से चिढ़कर रोता है। कभी फंस जाता है हम-तुम के बीच, समेटता खुद को सबके बीच। सही गलत का फैसला नहीं कर पाता, फिर उलझन में उलझकर रोता है। पुरुष का रोना बस, घर का कोना देख पाता। दिल की बात मन समझ पाता। हे पुरुष ! तुम्हें रोना नहीं, परिवार,समाज समझाता। असमंजस में पड़ा-खड़ा, ना खुलकर रो पाता है ना खुलकर हँस पाता है । (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

बारम्बार प्रणाम

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#दिनांक:-14/4/2024 #शीर्षक:-बारम्बार प्रणाम। चौदह अप्रैल का दिन विशेष,    प्रकट हुए दलितों के अशेष।      छुआछूत की दुर्गम राह,        पहचाना अन्तर्निहित निमेष। हर मजहब से उठकर,   धर्म जातिवाद में तैरकर,     जो है महान संविधान,       रातदिन मेहनत से रचकर । भोग विलास को ठुकराने वाले,    जांति पर आवाज उठाने वाले।      विधिवेत्ता,अर्थशास्त्री,समाज-सुधारक ,        बुद्ध का अनुकरण जीवन में करने वाले । अपना खुद पथप्रदर्शक बन चलते रहे,   विरोधियों को प्रेम से चलना सिखाते रहे।     ऐसे कर्मठ कर्मवीर को शत शत नमन,        अनमोल दीपक देश में अनवरत जलते रहे। दलित घर-आंगन की भीरु है शान,  विश्वस्तरीय भारतीय संसद का अभिमान।   अमर हुआ दलित समाज सुधारक एक नाम ,    भीमराव बाबा साहेब को बारम्बार प्रणाम । प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

एक पल का सुकून

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#दिनांक:-6/4/2024 #शीर्षक:-एक पल का सुकून। हॉं-हॉं तुम, बहुत भोले, बड़े नादान हो , सब में जो वफा ढूंढ रहे हो!  बड़ी सादगी भेष में,  सरलता की आस कर रहे हो।  जमाना अब पहले सा नहीं रहा,जान लो , दुनिया जहर-सी और तुम अमृत समझ रहे हो । बेमौसम यहाँ भी कभी बरसात हो जाती है , खौफनाक कभी भी वारदात हो जाती है, बेखौफ तुम पर हमें ऐतबार है,  ये जिस्मानी नहीं रूहानियत प्यार है, चिराग बुझाकर लोग माचिस मांगेंगे तुमसे,  तुम नासमझ!  समझोगे आग की दरकार है। रिश्तों की परिभाषा बदल गई,  घर आंगन की भाषा बदल गई, तुम वहीं अभी खोई खडी हो आज भी!  आशीष से नाम आशा बदल गए । दिखाकर प्रेम आखिर का पड़ाव मांगते हैं,  तेरे ही जिस्म से सौदागर चढ़ाव मांगते हैं, एक पल का सुकून,  जीना हराम जीवन भर,  सूखते गम को हर बार, कुरेदकर घाव टाँकते हैं । (स्वरचित मौलिक) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

वक्त वक्त की बात है

#दिनांक:-6/4/2024 #शीर्षक:-वक्त-वक्त की बात है। कट्टी पक्की की यारी, रोज होती नयी त्यौहारी। दिल दौलत से अमीर था, पहले झगड़े फिर मनुहारी। गद-गद हो जाता तन-मन, गर्मी की छुट्टी में रमता मन। नानी की प्यार वाली दवाई, चाय में घुलती सुबह सबेरे लाई। चीनी नहीं हम गुड़ के थे साथी, भाती हमको बस सवारी हाथी। बड़ी मनमोहक बड़े कामदार थे, हमीं चोर हमीं हवलदार थे । माँ समान आलिंगन करते भाई-बहन, तनिक भी दूरी ना होती थी सहन । अब चलन दूरी का चल पड़ा है, अब साथ न रहने की जिद पर अड़ा है। आज हँसी-ठिठोली के दिन लद गए , सच्चाई भी झूठे मजाक बन गए। बड़ा याद आता अपना बचपन, महक दूर तक पहुॅचती पूरी छनन। चाव और चाह थे एक पथ के राही, नरकट की कलम थी दवात भरी स्याही। रगड़-रगड़ कर रोज सुबह छिड़कते दुद्धी, एक बार मार खाते आ जाती थी बुद्धी। वक्त-वक्त की बात है, फोन से ही दिन और फोन ही रात है....। (स्वरचित,मौलिक) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

जब-जब हो सामना

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#दिनांक:-5/4/2024 #शीर्षक:- जब-जब हो सामना। मदभरे नशीले अनसुलझे दो नैन, जब-जब हो सामना बैचैन हो चैन।  मनमोहनी रसधार मोटी कजरार, सुध-बुध की खोजबीन में आतुर हो रैन। भाव अनंत छिपाकर, कुछ अनछुए बताकर। जाम मुहब्बत का पिलाकर, मचलते दिल को सताकर। दयाभाव ममतामयी ये दो नैन।  जब-जब हो सामना बैचैन हो चैन। रहस्यमयी अन्तर्निहित नयन, रिझता कभी खिझता सजन। बातचीत की शुरुआत नयन,  मिलते ही हो जाता है मगन। सुख में हँसे दुख में झरे दोनों नैन, जब-जब हो सामना बैचैन हो चैन।   (स्वरचित,मौलिक) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

मूर्खता

#दिनांक:-1/4/2024 #शीर्षक:- मूर्खता एक अप्रैल तो बेचारा खामखा बदनाम है, बेवकूफ तो बनाना दिनचर्या का एक काम है, इंसान इंसान को रोज मूर्ख बनाने को बेताब, विज्ञापन अभियान मूर्ख बनाने का ही धाम है । इस परम्परा की शुरूवात हुई अंग्रेजो के द्वारा, किया सोने की चिड़िया का वारा-न्यारा, बना यह नियम प्रबुद्ध निरन्तर गतिमान, अपने भी इसके झांसे में कर लिए किनारा । अप्रैल फूल रोज बनाते बच्चे माता-पिता को, प्रेम है तुमसे जानेमन प्रेमी उल्लू बनाते ललिता को, बच्चों के साथ कभी मूर्खता रोचक लगती अपनी, अथाह कष्ट होता, मूर्ख बनाई गई, लूटते वनिता को । (स्वरचित,मौलिक) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई 

एक पल का सुकुन

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#दिनांक:-4/4/2024 #शीर्षक:-एक पल का सुकून। हॉं-हॉं तुम, बहुत भोले, बड़े नादान हो , सब में जो वफा ढूंढ रहे हो! बड़ी सादगी भेष में, सरलता की आस कर रहे हो। जमाना अब पहले सा नहीं रहा,जान लो , दुनिया जहर-सी और तुम अमृत समझ रहे हो । बेमौसम यहाँ भी कभी बरसात हो जाती है , खौफनाक कभी भी वारदात हो जाती है, बेखौफ तुम पर हमें ऐतबार है, ये जिस्मानी नहीं रूहानियत प्यार है, चिराग बुझाकर लोग माचिस मांगेंगे तुमसे, तुम नासमझ! समझोगे आग की दरकार है। रिश्तों की परिभाषा बदल गई, घर आंगन की भाषा बदल गई, तुम वहीं अभी खोई खडी हो आज भी! आशीष से नाम आशा बदल गए । दिखाकर प्रेम आखिर का पड़ाव मांगते हैं, तेरे ही जिस्म से सौदागर चढ़ाव मांगते हैं, एक पल का सुकून, जीना हराम जीवन भर, सूखते गम को हर बार, कुरेदकर घाव टाँकते हैं । (स्वरचित मौलिक) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

पा लिया तुम्हें

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#दिनांक:-4/4/2024   #शीर्षक:- पा लिया तुम्हें अन्तर्मुखी है प्रेम मेरा, कभी चाहो तो आजमा लेना। बन्द आँखें रुकती साँसें, देखकर तुझे मिंचती-भिंचती, को ना कभी खामखा लेना। द्रवित उद्गार का उद्गम, मिलता पवित्र सरिता संगम। मलय में घुलती सुगंध, होश बच पा रहा मंद । क्षीरसागर सी रजनी दिव्यमान, चाँद उतारता नजरें माँ समान। आलिंगन आर-पार होने का आरोप, पागल को प्रभु प्रेम मिले हर रूप। आह! चंचल चितवन में हो रही गुदगुदी, कल का बीता दिन आज लग रही सदियों सदी। कोई माप ना ले बढ़ती धड़कनों की रफ्तार, उद्विग्न उद्वेलित उद्घाटित उन्नत प्रेम त्यौहार। तुम बिना देखे मुझे प्यार नहीं करते हो, मेरे भाव को देखकर ही इजहार करते हो, पर मैं अन्तर्मुखी हूँ। बंद आँख पढ़ती भावपक्षी हूँ। तुमने मेरी नग्नता को देखने की चेष्टा की, मैंने तुम्हारी आत्मा को परखने की चेष्टा की। तुमने मिट्टी के शरीर की चमक से प्रेम किया , मैंने तुम्हारी रूह में चमकते चितवन से प्रेम किया। इसलिए तुम मुझे नहीं समझ पाये कभी से, पर तुमसे ज्यादा मैंने,पा लिया तुम्हें तुम्हीं से । (स्वरचित, मौलिक ) प्रतिभा पाण...

सबके सब दादुर हैं यहाँ

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#दिनांक:-4/4/2024 #शीर्षक:-सबके सब दादुर हैं यहॉ। है रूठने की बड़ी पुरानी प्रथा, नमन मनाने की अचूक कथा। खुलकर जियो तो दुनियाँ रूठती,  बन्द कर लो खुद को तो प्रतिभा रूठती ।  अंधेरे को साथी बनाओ उजाले बुरा मान जाते है,  बन्द कमरे को साथी बनाओ मातायें कुढ़ती हैं। जुबा को हथियार बनाओ समाज रूठता ,   सुखों को आग लगा कर सलाई रूठ बैठी,  सब मोह, माया से करूँ तो काया रूठती । पीछा करूँ खुद की तो साया रूठती , पैसे से करो दोस्ती तो कंगाली रूठती। बन जाऊँ आलसी तो मेहनत रूठती , प्यार झूठ से करूँ तो सच्चाई रूठती।  नफ़रत दिखावट से हो तो ननद भौजाई रूठती , उत्साह से उत्सव ना मनाऊँ तो साई रूठता। नमकीन अश्क में हर पल,  न जाने कितनो का सपना बहता ,  चुपचाप सब सहन से सुकुन रूठता, निरन्तर गतिमान रहो तो उम्मीदे रूठती, समन्दर की शोर से अंदर की आवाज रूठती। ना उतर सकूँ खरापन तो आशा गुस्से से टूटती, काबू खुद पर तो बल रूठती। त्याग समर्पण करूँ तो छल रूठता, सब के सब दादुर हैं यहाँ , एक को पकड़ो तो दूसरा रूठता। (स्वरचित) प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई