सबके सब दादुर हैं यहाँ
#दिनांक:-4/4/2024
#शीर्षक:-सबके सब दादुर हैं यहॉ।
है रूठने की बड़ी पुरानी प्रथा,
नमन मनाने की अचूक कथा।
खुलकर जियो तो दुनियाँ रूठती,
बन्द कर लो खुद को तो प्रतिभा रूठती ।
अंधेरे को साथी बनाओ उजाले बुरा मान जाते है,
बन्द कमरे को साथी बनाओ मातायें कुढ़ती हैं।
जुबा को हथियार बनाओ समाज रूठता ,
सुखों को आग लगा कर सलाई रूठ बैठी,
सब मोह, माया से करूँ तो काया रूठती ।
पीछा करूँ खुद की तो साया रूठती ,
पैसे से करो दोस्ती तो कंगाली रूठती।
बन जाऊँ आलसी तो मेहनत रूठती ,
प्यार झूठ से करूँ तो सच्चाई रूठती।
नफ़रत दिखावट से हो तो ननद भौजाई रूठती ,
उत्साह से उत्सव ना मनाऊँ तो साई रूठता।
नमकीन अश्क में हर पल,
न जाने कितनो का सपना बहता ,
चुपचाप सब सहन से सुकुन रूठता,
निरन्तर गतिमान रहो तो उम्मीदे रूठती,
समन्दर की शोर से अंदर की आवाज रूठती।
ना उतर सकूँ खरापन तो आशा गुस्से से टूटती,
काबू खुद पर तो बल रूठती।
त्याग समर्पण करूँ तो छल रूठता,
सब के सब दादुर हैं यहाँ ,
एक को पकड़ो तो दूसरा रूठता।
(स्वरचित)
प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
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