हे पुरूष ! तुम्हें रोना नहीं
#दिनांक:-24/4/2024
#शीर्षक:-हे पुरुष ! तुम्हें रोना नहीं।
हाँ ,स्त्रियों जान लो,
पुरुष भी रोता है।
कभी किसी में,
सिद्दत से जब खोता है।
छाया के अभाव में,
अकेलेपन में रोता है।
पहला प्यार माँ से,
उठ जाए माँ का साया।
अकेलेपन के घुटन में रोता है,
वेदना दिखाता नहीं,
व्यथा बताता नहीं।
आहत कभी नर से,
कभी नारी से प्रताड़ित हो,
कुढ़ता रोता है।
कभी-कभी खुद के व्यवहार से,
हानि हुए विस्तृत व्यापार से,
दर्द का अथाह सागर,
कभी ना दिखाता गागर।
कभी शोषित तो कभी हीनभाव,
शोषण से चिढ़कर रोता है।
कभी फंस जाता है हम-तुम के बीच,
समेटता खुद को सबके बीच।
सही गलत का फैसला नहीं कर पाता,
फिर उलझन में उलझकर रोता है।
पुरुष का रोना बस,
घर का कोना देख पाता।
दिल की बात मन समझ पाता।
हे पुरुष ! तुम्हें रोना नहीं,
परिवार,समाज समझाता।
असमंजस में पड़ा-खड़ा,
ना खुलकर रो पाता है
ना खुलकर हँस पाता है ।
(स्वरचित)
प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
चेन्नई
#शीर्षक:-हे पुरुष ! तुम्हें रोना नहीं।
हाँ ,स्त्रियों जान लो,
पुरुष भी रोता है।
कभी किसी में,
सिद्दत से जब खोता है।
छाया के अभाव में,
अकेलेपन में रोता है।
पहला प्यार माँ से,
उठ जाए माँ का साया।
अकेलेपन के घुटन में रोता है,
वेदना दिखाता नहीं,
व्यथा बताता नहीं।
आहत कभी नर से,
कभी नारी से प्रताड़ित हो,
कुढ़ता रोता है।
कभी-कभी खुद के व्यवहार से,
हानि हुए विस्तृत व्यापार से,
दर्द का अथाह सागर,
कभी ना दिखाता गागर।
कभी शोषित तो कभी हीनभाव,
शोषण से चिढ़कर रोता है।
कभी फंस जाता है हम-तुम के बीच,
समेटता खुद को सबके बीच।
सही गलत का फैसला नहीं कर पाता,
फिर उलझन में उलझकर रोता है।
पुरुष का रोना बस,
घर का कोना देख पाता।
दिल की बात मन समझ पाता।
हे पुरुष ! तुम्हें रोना नहीं,
परिवार,समाज समझाता।
असमंजस में पड़ा-खड़ा,
ना खुलकर रो पाता है
ना खुलकर हँस पाता है ।
(स्वरचित)
प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
चेन्नई
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें