एक पल सुकून की गहराई

#दिनांक:-30/3/2024
#शीर्षक::-एक पल सुकून की गहराई।

भीड़ तंत्र महफ़िलों के हम
 तन्हा कलाकार हैं, 
हम खुद से खुदी इश्क
 करने वाले कलाकार हैं। 
बीज अकेलेपन की खेती के
हम व्यापार हैं,
अकेले जीवन जीते मस्त
  मसालेदार यार हैं। 
सारा काम मोबाइल ने
 जब से सम्भाला है यारों, 
अपने घर में ही हम 
बहुत दूर के रिश्तेदार हैं! 
खो गए घर खो गया आंगन 
जो छाँवनीदार था, 
खो गए बाबू जी खो गया
 शानो-शौकत जो खुद्दार है। 
अकेलेपन की कभी चोरी ही नहीं
 होती ना जाने क्यूँ? 
यहाँ तो डकैत भी कहते हमारा
 भविष्य अंधकार है। 
जो कभी चोरी छुपके अपने में
 मगन हो लो एक दिन, 
रात रिसियाकर कहेगी 
अब रो तेरा रोनी त्यौहार है। 
हाय बड़ी किस्मत वाले हैं 
हम भारतीय जान लो, 
वर-वधू झगड़ा बस वक्त मनोरंजन का आविष्कार हैं। 
कोई इधर रूठा कोई उधर टूटा
 कोई ताउम्र छूटा, 
पकड़ते हैं हम सबकुछ 
फिर भी तन्हा के दरबार हैं।
दर-दर भटकते है पर 
रास्ता साफ नहीं दिखता, 
बन्द आँखों में अपनों 
और सपनों में तकरार हैं।
सोचा प्रेम किसी खास से
 कर के जीवंत जी लूँ, 
उफ्फ! नयनों से अश्रु 
पश्चाताप के गिरते बारम्बार हैं।
खोजती हूँ सबमें एक पल 
सुकुन की गहराई, 
बेरंग हो जाती यहाँ तो 
सबके सब अकेलेपन के शिकार हैं।

           (स्वरचित, मौलिक)
               प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
                     चेन्नई

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