रंगभरी एकादशी
#दिनांक:-21/3/2024
#शीर्षक:- रंगभरी एकादशी।
आओ चलो बहुत-बहुत पीछे चलते हैं,
दादू की सुलझी बात दादी का दुलार ढूंढते हैं।
पापा की स्नेहिल छॉव माँ के आँचल में छुपते हैं,
धमाचौकडी सारे घर आंगन में पुनः करते हैं।
छोटी-छोटी मिट्टी के बर्तन में खाना सीखते हैं,
अरे लंगोट यार बगैर तो बचपन ही सूना,
आज फोन करके यारों के साथ बचपन जीते हैं।
आज है रंगभरी एकादशी खूब गुलाल खेलते हैं
डब्बू भईया के संग-साथ चन्दू को तंग करते हैं।
बड़े क्या हुए बडप्पन दिखाना पड़ता है,
मन समोसे चाहे पर मसोस कर चलना पडता है ।
किलकारी अच्छी लगती पीहू की,
बात अलग है रात भर जागना पडता है।
अच्छों की महफिल में अच्छे हैं,
बुरों की महफिल में भी अच्छा बनना पड़ता है ।
तंग मन कभीकभी खुलकर रोना चाहता है,
आँखों में पानी फिर भी खुलकर हँसना पडता है ।
आशिक के शहर में दिल पत्थर करना पड़ता है।
(स्वरचित मौलिक)
प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
चेन्नई
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